Thursday 14 January 2016

दिल्ली थोड़ी ब्रुटल लगी: शुभ्रास्था

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राजधानी दिल्ली को लेकर आपने जो कल्पना की थी और पहली बार इस महानगर को देखा तो उसमें कितना फर्क था? वह फर्क क्या था?
सीधे-सीधे कहूं तो दिल्ली के बारे में यही सोच रखा था कि वह संभावनाओं से भरा शहर होगा। जब ग्रेजुएशन में दाखिला लेने पहली मर्तबा दिल्ली आई तो इसी समझ के साथ आई थी। तब दिल्ली मेरे लिए एक ऐसे प्लेटफॉर्म की तरह थी, जहां मैं अपनी बेहतरी के लिए सोच सकती थी। चूंकि इससे अधिक मैंने कोई कल्पना नहीं की थी, इसलिए जो जैसा दिखा, उसे उसी स्वरूप में जाना और समझा।
हां, जैसे-जैसे मैं इस महानगर को करीब से देखती गई तो यही जाना कि दिल्ली ऐसी जगह है, जहां कई विकल्प हैं। इन विकल्पों में हमें अपने लिए भी एक विकल्प चुनना है। ठीक उसी तरह जैसे हम किसी रेस्तरां में जाते हैं तो वहां के मेन्यू में तमाम चीजें होती हैं, जिसमें हमें अपनी पसंद के जायके चुनने होते हैं।
आप बिहार सरीखे पारंपरिक रीति-रिवाज वाले प्रदेश से दिल्ली आई थीं। यहां की जीवन-शैली से तालमेल बिठाने में आपको कितना वक्त लगाऔर इस दौरान आपने दिल्ली को किस रूप में देखा-समझा?
मैं तो यही कहूंगी कि दिल्ली थोड़ी ब्रुटल लगी। आप शहर के कितने भी संभ्रांत जगह पर क्यों न हों, लोग जज्मेंटल होकर ही देखते हैं। दिल्ली में लोगों के स्वभाव का यह हिस्सा है। इस बात को मैंने अपने ही अनुभव से समझा और जाना है। दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस से मेरी पढ़ाई हुई। वहां से मैंने अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएट हुई। फिर एमएम भी किया। इस तरह किसी भी छात्र-छात्राओं की तरह मैंने अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस में बिताए। अब तो बहुत कुछ बदल चुका है, लेकिन जब मैं पहली बार बिहार से दिल्ली आई तो मेरा पहनावा बिल्कुल अलग था। चूंकि मेरे परिवार में जींस पहनना किसी को पसंद नहीं था, तो मैं पारंपरिक आकार में सिले सूट पहनकर ही क्लास जाती थी, जिसमें दुपट्टे का विशेष महत्व था। मेरी पोशाक का आधुनिकता से दूर-दूर तक कोई नाता-रिश्ता नहीं था। तब मेरे पहनावे को लेकर छात्राओं की तो छोड़िए, कुछ टीचरों ने भी मुझे जज्मेंटल होकर देखना शुरू कर दिया था। हालांकि, वह क्षणिक ही रहा, क्योंकि जैसे-जैसे इंसान खुद को साबित करता जाता और अपनी साख बना लेता है तो बांकी चीजें पीछे छूट जाती हैं। मेरे साथ भी यही हुआ। चूंकि मैं कॉलेज पढ़ाई के लिए गई थी तो मेरी प्राथमिकता में वही रहा।
लेकिन, इसके साथ-साथ न महसूस होने वाली गति से स्वत: दूसरे बदलाव भी आते जाते हैं, जिसे हम लंबे अंतराल के बाद ही समझ पाते हैं। मसलन- एक समय दुपट्टा लेना जहां बेहद जरूरी लगता था। अब नहीं लगता है। दरअसल, ऐसी बातें इंसान के भीतर आए बदलाव को कहीं न कहीं जाहिर करती हैं। इसके बावजूद मैं कहूंगी कि दिल्ली ब्रुटल है और यह बात मुझे पसंद नहीं आई। वैसे एक समय के बाद यह समझ बनी कि कुछ बातें अच्छी न लगे, वह भी अपने-आप में जरूरी है। क्योंकि, इसके बाद ही इंसान खुद को परखने की प्रक्रिया से गुजरता है। वह अपने अंदर झांकता है। फिर यह जानने-समझने की कोशिश करता है कि उसमें ऐसी कौन सी बात है जो लोगों को अच्छी नहीं लग रही है। इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद इंसान कुछ पुरानी चीजों को छोड़ता है और कुछ नई चीजों को ग्रहण करता है। मेरे साथ भी यही हुआ। मैंने भी कुछ चीजों को ग्रहण किया, तो कुछ को छोड़ा। कुछ चीजों से चिपकी रही, क्योंकि मैंने तय किया कि इसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ना है। इस बातों के बरकस आज मैं दिल्ली को एक संतुलित मिजाज वाले शहर के रूप में देख पाती हूं, जो शायद पहले नहीं देख पाती थी।
दिल्ली के खान-पान और बोल-चाल के अंदाज को लेकर आपकी क्या राय है?
बेशक दिल्ली में लोगों की बात-चीत और उनके रहन-सहन का तरीका मुझे पहले-पहल आकर्षित नहीं करता था। मैं दिल्ली में ही यह जान पाई कि दाल भी एक तरह की सब्जी ही है। लोग रोटी-दाल मजे में खाते हैं, जबकि हमारे यहां दाल के साथ-साथ सब्जी एक जरूरी चीज है। दाल और सब्जी दोनों का अपना-अपना महत्व है। दिल्ली में दोनों का महत्व एक है। शुरू के दिनों में यह सब देखकर थोड़ा अटपटा लगता था, लेकिन अब तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। बोल-चाल को लेकर भी ऐसे ही उदाहरण हैं।

दरअसल, घर से बाहर आने के बाद जब नई-नई चीजों से सामना होता है या नई संस्कृति से मेल-जोल बढ़ता है तो कई दफा हम उसे बर्दास्त करते हुए चलते हैं। वैसे राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से देखें तो दिल्ली आने पर हमें देश को व्यापक तरीके से जानने-समझने में मदद मिलती है। कॉलेज के दिनों में पूर्वोत्तर भारत के दोस्तों से मिलने-जुलने के दौरान यही बात ध्यान में आती थी कि इनका रंग और रिवाज विचित्र है। अब जब मैं असम में हूं तो यही सोचती हूं कि आखिर वे लोग हमारे बारे में क्या राय रखते होंगे? क्योंकि इनके लिए तो हमारा रंग-रिवाज, खान-पान सब विचित्र है। मूल रूप से उनके लिए हम विचित्र थे। खैर, मैं समझती हूं कि लोगों का अपने परिवेश के अनुसार रहन-सहन और खान-पान होता है, उसे देखकर हमें कभी भी जज्मेंटल नहीं होना चाहिए।
दिल्ली में दो तरह की संस्कृति का गहरा प्रभाव हर तरफ दिखाई देता है। एक ठेठ गंवई संस्कृति है, जो शहर के बीचों-बीच जाठ और गुर्जरों के गांव में दिखती है। जैसे- चंद्रावल गांव, ढाका, मुनिरका आदि। दूसरी संस्कृति पंजाबियता की है। आखिर वह कौन सी बात है, जो इन्हें एक दूसरे से जोड़ती भी हैक्या आपको किसी बिंदु पर दोनों संस्कृतियों के बीच टकराव होता नजर आया?
मुझे लगता है कि अर्थव्यवस्था एक ऐसी मजबूत कड़ी है जो दोनों को एक-दूसरे से जोड़े रखती है। मैं एक उदाहरण देती हूं- जिस चंद्रावल गांव का जिक्र आप कर रहे हैं, उसी गांव के लोग कमला नगर मार्केट में गोल-गप्पे और कई दूसरी चीजें बेचते हैं, जिसे शहर का पंजाबी समाज बड़े चट्कारे लेकर खाता है। यकीनन, इस दौरान दोनों का मेल-जोल होता है। यदि इससे कोई नई संस्कृतिक पनप रही होगी तो जल्दबाजी में कुछ कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन, मोटे तौर पर मेरी यही राय है कि बदलते आर्थिक परिदृष्य में दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं। हां, मैं यह कह सकती हूं कि दिल्ली के चंद्रावल सरीखे गांवों से जो लड़कियां विश्वविद्यालय पढ़ाई के लिए आती हैं, वे अपनी ठेठ ग्रामीण संस्कृति के साथ-साथ पंजाबियत से भी प्रभावित होती हैं। जहां तक टकराव की बात है तो वह सांस्कृतिक स्तर पर कहीं दिखाई नहीं देता है। हालांकि, राजनीतिक टकराव जरूर है।
दिल्ली में वह कौन सी बात है जो आपको अपनी तरफ खींचती है?
अब भी मुझे यही लगता है कि दिल्ली एक संभावनाओं का शहरबना हुआ है। दिल्ली शहर की यही बात मुझे अपनी तरफ खींचती है। इसके अलावा ऐसी कोई चीज नहीं है, जिससे मैं दिल्ली की तरफ आकर्षित हो सकूं। मैं तो भारत के हर गांव में दिल्ली को पलते हुए देखना चाहती हूं ताकि लोगों को पलायन न करना पड़े। यह सच है कि पलायन से संस्कृति का मेल-जोल बढ़ रहा है, लेकिन इससे बड़ी बात तो यह होगी कि हम अपने छोटे-छोटे शहरों को भी संभावनाओं का शहर बना दें। यह आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
असंभावनाओं के इस दौर में क्या दिल्ली से वापस लौटना संभव है?
बिल्कुल है। सच कहूं तो लोग लौट भी रहे हैं। अब मैं खुद दिल्ली में नहीं रहती। मेरी तनिक इच्छा भी नहीं है कि दिल्ली में मेरा कोई घर हो। यह सच है कि मेरे जितने सहपाठी थे, उनमें से ज्यादातर लोगों को दिल्ली पसंद आई। उन्होंने दिल्ली और मुंबई में ही रहना पसंद किया। यह निजी पसंद से जुड़ा मसला है। मेरी निजी इच्छा यही है कि अपने इलाके में जाकर कोई काम करुं। आप पाएंगे कि ज्यादातर लोग अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए दिल्ली आते हैं। जब वे उसका समाधान ढूंढ़ लेते हैं तो उनकी महत्वाकांक्षा दिल्ली सरीखी हो जाती है और उसके साथ ही भटकाव का दौर शुरू हो जाता है। इस बात को हम ध्यान में रखेंगे तो लौटना कठिन नहीं होगा।
एक बात आपको बताना चाहूंगी। वह यह कि बिहार से जब कोई छात्र दिल्ली आता है तो वह आईएएस, पत्रकार या कोई दूसरे सपने के साथ आता है। तब उसके मन में यह बात रहती है कि पत्रकार बनकर बिहार की स्टोरी करुंगा। आईएएस बनकर बिहार कैटर लूंगा आदि-आदि। कुल मिलाकर वह अपने प्रदेश के बारे में सोचता है, लेकिन समय के साथ लुटियंस दिल्ली उसे अपनी तरफ खींच लेती है उसका लौटना मुश्किल हो जाता है। यदि हम अपने जज्बे को बनाए रखेंगे तो ‘वापस लौटना’ एक सहज प्रक्रिया होगी। वैसे भी मैं यह मानती हूं कि गांव या कस्बे को छोड़कर हम कभी आगे नहीं बढ़ते, बल्कि उसकी यादों को हमेशा साथ लिए चलते हैं।
यदि दिल्ली के किसी एक चीज को बदलने का अवसर मिले तो आप किस चीज को बदलना चाहेंगी?
यकीनन, मैं कुछ बदल पाई तो दिल्ली के प्रदूषण को खत्म करना चाहूंगी। लेकिन हां, सम-विषम वाले फार्मूले से अलग हटकर। वैसे संस्कृति के लिहाज से देखें तो मेरा यही ख्याल है कि हर शहर और प्रदेश का अपना मिजाज होता है। अगर मुझे वह रास नहीं आ रहा है, तो भी उसे बदले का हक मुझे नहीं है।
महिलाओं के लिए दिल्ली कितनी सुरक्षित है?
दिल्ली उतनी ही सुरक्षित और असुरक्षित है, जितना असम है। बिहार है। उत्तर प्रदेश आदि राज्य है। चूंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है तो वहां घटनाएं तत्काल सामने आ जाती हैं। रिपोर्टरों के लिए उसे कवर करना आसान है तो वे उस खबर को दिखाते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल दिल्ली में घटनाएं हो रही हैं। यदि बारीकी से देखें तो पाएंगे कि एक लड़की के लिए जैसा पटना, लखनऊ या ऐसे दूसरे शहर हैं, वैसी ही दिल्ली है।

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